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उचित दण्ड

राजगृह में एक बड़े उत्सव का आयोजन हुआ । उसमें नृत्य के लिए एक कुशल नर्तकी को, जो एक ग्वाले की पत्नी थी, आमंत्रित किया गया ।  उस समय गर्भवती होने के कारण उसने अपनी असमर्थता व्यक्त की, किन्तु सामन्तों ने उसकी एक न सुनी और उसे मजबूरन नृत्य करना पड़ा ।  इससे उसे दुःख हुआ और उसके हृदय में प्रतिशोध की भावना भड़क उठी, जो अन्त तक कायम रही ।  परिणाम यह हुआ कि दूसरे जन्म में राजगृह में ही यक्षिणी के रूप में उसका जन्म हुआ और उसका नाम  'हारीति' रखा गया।
      जब वह बड़ी हुई, तो पूर्वजन्म का प्रतिशोध पाप की प्रेरणा बनकर फूटा और वह नगर के बच्चे चुरा -चुराकर उन्हेंं मारने और उनका भक्षण करने लगी ।  यह बात छिपी न रह सकी और वह बन्दी बना ली गयी ।  गौतम बुद्ध को जब यह बात पता चला कि बच्चों की भक्षण करने वाली एक औरत को बन्दी बनाया गया है, तो उनके मष्तिष्क में हलचल मची कि एक कला - निष्णात स्त्री में पापकर्म ने प्रवेश कैसे किया ।  अन्तर्दृष्टि से जब पूर्वजन्म में उसके साथ हुए दुर्व्यवहार का उन्हेंं पता चला, तो उन्होंने राजगृह - नरेश से कहकर उसे कारागार से मुक्त करा दिया ।  साथ ही सेवकों से उसके बच्चे को चुराने के लिए कहा ।
      पुत्र के खो जाने से हारीति को मर्मान्तक पीड़ा हुई ।  उसकी करूणा और वात्सल्य तीव्र रूप से जाग्रत हो उठा ।  साथ ही उसने अनुभव किया कि ऐसा दुःख - शोक उन माताओं को भी हुआ होगा, जिनके बच्चों का उसने अपहरण कर भक्षण किया था ।  पुत्र - वियोग से हारीति गौतम बुद्ध के पास गयी और बोली,  "भगवान् !  मेरे कर्मों का फल तो मुझे मिल गया, किन्तु मुझे पाप से मुक्ति कैसे मिल सकती है ?"
      बुद्धदेव बोले,  "अब तक तो तुम शिशुओं का भक्षण करती आ रही थीं ।  अब तुम उनके विकास और रक्षण में जुट जाओ, तो तुम्हें शान्ति मिल सकती है । तुम्हें समाज के साथ किये गये दुर्व्यवहार को सेवारूपी साबुन से धोकर साफ करना होगा ।"  गौतम बुद्ध के उपदेश से उसके अन्तश्चक्षु खुल गये और उसने अपना जीवन बच्चों की सेवा में लगा दिया ।

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